हे नदी !!
तुम्हारे साहिल पर खड़ा वो पेड़
जिसे अच्छा लगता है
तुम्हारा रस भरा गान
स्वच्छंद बहते पानी का
तना सहलाते जाना
जड़ों में भर देना ऊर्जा अपार,
वो सुनता है अनकहे किस्से
तुम्हारी सुरमयी आँखों के
ऊंघते लोगों के मुँह से
जिन्होंने किनारों पर बैठकर
तुम्हे चाहा है बेशुमार,
उसके हरित पर्ण पर अंकित
डूबते सूरज से रोशन
मुक्त तरंगो के सब भाव
जिसने लिखी तुम्हारी तरुणाई पर
निष्ठुर कवितायें हज़ार,
परिंदो के आशियाने
हर्षित करती प्रेम क्रीड़ाएं
निर्बाध निस्वार्थ सींचा
लहलहाता रहा वो पेड़
न थी जिसे विपत्ति की आशंकाए
करता रहा वो नदी से प्यार,
अबके ऋतु ऐसा आया
पथिक व्यथा में, हवा सुखी
अकाल पड़ा देश देशांतर
ये किस्सा नूतन है, अनूठा कहते
नदी सहमी संकरी पेड़ से दूर बहती
पत्ते उड़ चले
और
बस ठूंठ सा
झुका है सरिता की बाहों में
आने को आतुर,
फिर बदले जो मौसम
तुम नद भर जाना
समेट लेना बाहों में
कर देना हरा
ओ रे निष्ठुर !!
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