तेरी मेरी समझ के परे हैं
ज़िन्दगी के तजूर्बे कितने खरे हैं|
ज़िन्दगी के तजूर्बे कितने खरे हैं|
टूट रही टहनियां जिनकी
पेड़ वो अंदर से जाने कितने हरे हैं |
पेड़ वो अंदर से जाने कितने हरे हैं |
दिखते हैं शेर बाहर से
लोग पर कितने डरे हैं |
लोग पर कितने डरे हैं |
सांसे भी हैं ज़िन्दा भी हैं
क्या खबर कितने मरे हैं |
क्या खबर कितने मरे हैं |
इश्क,बेवफाई एक साथ
हुनर कैसे इतने तुझमें भरे हैं |
हुनर कैसे इतने तुझमें भरे हैं |
हुस्न खिला है इत्तरा ले चाहे जितना
वरना कितनी मुमताज़ों के मकबरें हैं।
ना रहा सदियों बादशाह कोई यहां
महल चौबारे सब धरे के धरे हैं।
दही चीनी खाकर घर से निकलिए जनाब
लोग बाहर कड़वाहटों से भरें हैं।
@ राजेश पूनिया
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