Friday, May 27, 2016

ओ रे निष्ठुर -16 !!!!

तुमसे मिलने
बात करने की
बेपनाह मंशा उमड़ती है
समंदर की लहरें जैसे
चाहती हों किनारों को सुनाने
अपने किस्से
नए पुराने
प्रेम कहानियाँ
लुटे हुए खजाने,
फिर फिर
लौट आती हैं
बनाकर नए फ़साने,

किनारे जड़ बने
अपने पत्थर मिट्टी
सम्भालते रह जाते हैं
कहाँ समझते हैं कि
लहरें कब लुटेरी थी
उन्हें नहीं चाहिए
अथाह खजाना
अथाह प्यार
अथाह साथ,
बस थोड़ा सा वक़्त
बहुत होगा तट तेरा 
तरंगो के संग उमंगों का,

ऐसा न हो कहीं
वक़्त रुके ऐसी जगह
जहां लहरों को
रौंद रही होंगी
कागज़ किश्तियाँ
साहिलों पे बन रही होंगी
मीनारें
और मंशा रह जाए
मन में लहरों की तरह उठ कर
मीनारें रोक लें उनको साहिलों से दूर
वक़्त कम पड़ जाए,

तो मत खड़ी होने दे
संशय की दीवारें
डर को धकेल दे
रसातल में
मन मजबूत है
आ वक़्त गुजार
कुछ बात कर
यकीन कर
टूटेगा नहीं
है बहुत
थोड़ा और कर

ओ रे निष्ठुर !

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