Friday, May 27, 2016

ओ रे निष्ठुर-17 !

तेरा विश्वास
इस रिश्ते का
और
मेरा सम्बल है,
मजबूत जड़ें
जैसे सम्भाल लेती हैं
वृक्ष को
घनघोर आँधी से
हज़ारों विपदाओं से
और वृक्ष भी
झुकता है
विषम भावों में
अपने विश्वास को
अडिग रखते हुए,

रिश्ते की जड़ें
वृक्ष सरीखी समर्थ हैं
और ये विश्वास
गहराता है
जड़ें पोषित
कर रहीं हैं
वृक्ष को वक़्त के साथ
जो दोनों ने साथ बिताया है  
हज़ारों बातें
जड़ों की 
पेड़ की
उन्हें कर गयी पूरक
और खड़े हैं दोनों
अपने विश्वास को
अडिग रखते हुए,

कभी कोई डाल टूटे
तो पेड़ भी रोया
रोती जड़ें भी हैं
पर नयी कोंपलों
के फूटने पर
पुरानी पीर
बिसराना अच्छा होता है
ख़ुशी और गम
नुतन पुरातन
सब तो वक़्त के नियम हैं
बस साथ जरुरी
अपने विश्वास को
अडिग रखते हुए,


चलो फिर हम भी
सींच लें
रिश्तों को
मजबूत कर लें बुनियाद
वक़्त की बातें
वक़्त पे रहने दें
विश्वास की नयी
ऊंचाईया देखें
थोड़ा तुम करते हो
थोड़ा और बढ़ाओ
चलो
फिर कोई नयी बात चलाओ 

ओ रे निष्ठुर !

No comments:

Post a Comment