Friday, November 20, 2015

ओ रे निष्ठुर.....12

वो शाम गजब ढली
मय सी घुली
थकन से उभरी
आँखों में पसरी
थोड़ी सी भीगी
तुम्हारा पहलू
और जानलेवा
चन्द्रमा कि चाशनी से टपकते तुम !

शहद बदन
यौवन छन छन
मेरा समर्पण
तेरा आलिंगन
रात कि आहट
कहो कैसे सहलूं
और जानलेवा
चन्द्रमा कि चाशनी से टपकते तुम !

मेरी आशाएं
तुम्हारी इच्छाएं
दानव विचार
गयी मैं हार
महकती हूँ अब भी
तुमसे कहलूं
अब भी उस चाशनी में रत हूँ
बस तुम नहीं टपकते हो अब !
कभी फिर से
चन्द्रमा बन
अपनी चाशनी में भिगोने

आओ तो

ओ रे निष्ठुर !!



No comments:

Post a Comment