वो शाम गजब ढली
मय सी घुली
थकन से उभरी
आँखों में पसरी
थोड़ी सी भीगी
तुम्हारा पहलू
और जानलेवा
चन्द्रमा कि चाशनी से टपकते तुम !
शहद बदन
यौवन छन छन
मेरा समर्पण
तेरा आलिंगन
रात कि आहट
कहो कैसे सहलूं
और जानलेवा
चन्द्रमा कि चाशनी से टपकते तुम !
मेरी आशाएं
तुम्हारी इच्छाएं
दानव विचार
गयी मैं हार
महकती हूँ अब भी
तुमसे कहलूं
अब भी उस चाशनी में रत हूँ
बस तुम नहीं टपकते हो अब !
कभी फिर से
चन्द्रमा बन
अपनी चाशनी में भिगोने
आओ तो
ओ रे निष्ठुर !!
मय सी घुली
थकन से उभरी
आँखों में पसरी
थोड़ी सी भीगी
तुम्हारा पहलू
और जानलेवा
चन्द्रमा कि चाशनी से टपकते तुम !
शहद बदन
यौवन छन छन
मेरा समर्पण
तेरा आलिंगन
रात कि आहट
कहो कैसे सहलूं
और जानलेवा
चन्द्रमा कि चाशनी से टपकते तुम !
मेरी आशाएं
तुम्हारी इच्छाएं
दानव विचार
गयी मैं हार
महकती हूँ अब भी
तुमसे कहलूं
अब भी उस चाशनी में रत हूँ
बस तुम नहीं टपकते हो अब !
कभी फिर से
चन्द्रमा बन
अपनी चाशनी में भिगोने
आओ तो
ओ रे निष्ठुर !!
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