Wednesday, September 2, 2015

कहानी -' निश्छल '

पहली बार जब निशा उस से मिलने आई तो लगा कि एक  बहुत ही सौम्य रिश्ते का प्रारम्भ है। बहुत गद-गद भाव से दिवाकर  निशा को लेने पहुंचा था।  सब बहुत सुखद था। दिवाकर बहुत वर्षो से जिंदगी में इतना व्यस्त रहता आया है कि उसके पास नए रिश्ते, दोस्त और लोगो के लिए वक़्त था ही नहीं।
                 कला और ज्ञान का हमेशा से कायल रहने वाला दिवाकर निशा को कब पसंद करने लगा था उसे भी नहीं पता चला।  बुद्धिमता हमेशा उसे लुभाती रही है। कला का सम्मान उसके दिल में कब से पलता है ठीक ठाक से अंदाजा उसे भी नहीं है।  हर वो व्यक्ति जो विश्व की सुंदरता को निखारता है उसमे बढ़ोतरी करने का काम करता है उसे पसंद था। क्षेत्र कोई भी हो विज्ञान, कला, लेखन, चित्रकारिता. .  . .  जो भी हो. . . . उसके दिल को जो चीज अच्छी लगी उसने उसी के अध्ययन में, देखने में, उसे सोचने में जानने में कितना वक़्त बिताया है। कितनी ही किताबें पढ़ते हुए लेखक को प्यार  हुआ है और चित्र देखते हुए चित्रकार को पसंद करने लगा था। कैसे ये लोग इतनी सुन्दर तस्वीरें ले सकते हैं ? कैसे कोई मन के दृश्य कैनवास पर अंकित कर सकता है ?  कैसे कोई अपनी कल्पनाओं को पंक्ति दर पंक्ति कागज़ पर उकेर सकता है ? कैसे कोई इतनी जटिल मशीनों को  बना सकता है ? अचरज का विषय उसके लिए हमेशा से ही था , आज भी है। निशा के अंदर के उसी कलाकार का सम्मान उसके मन में आज भी जस का तस है। इंसान के किस पहलू को आप पसंद करते हो आपका निजी मुआमला है।  किस एक इकाई से होते हुए आप सम्पूर्ण को चाहने लगते हो वो उस इकाई के प्रति आपकी चाहना और गंभीरता पर निर्भर करता है। और जब आपके भाग्य में धक्के लिखे हों, आपकी किस्मत के तोते उड़े हों तो आप उस इंसान के चक्कर में पड़ते हैं जो आपकी किस्मत में होता ही नहीं है।  मतलब आप उधर जाते हो जहां आपका कटना निश्चित है। फिर आप जितना मर्ज़ी "सम्भोग से समाधि ओर" पढ़ो जो दर्द भुगतना है सो तो पत्थर पर लकीर की भांति खुद चुका होता है। उस वक़्त न ही वो व्यक्ति और न ही उसकी कृतियाँ आपका दर्द कम कर सकती है।बुद्धिमता से आप प्यार न करे बस उसके प्रशसंक रहे तो बेहतर रहता है ।
                               खैर दिवाकर निशा की कला का कद्रदान, प्रशंसक एवं मुरीद बन रहा था, प्यार के बारे में अभी संशय था।  बहुत दिनों बाद खुद निशा उस से मिलने आ रही थी। बहुत ख़ुशी थी।  कहें तो दिल बागो बाग़ था। बारिश  कहीं नहीं थी पर फिर भी हल्की हल्की बूँदाबाँदी का आभास जाने ह्रदय को क्यों हो  रहा था। सोंधी सोंधी खुशबू मिट्टी से उठकर मन में अपना एक घर लेकर बस गयी थी।   ह्रदय जमीन पर हलके हलके गुलाबी रंग वाले गुलाब खिले थे। जिनका एक  नन्हा सा हिस्सा दिवाकर ने निशा के लिए रख  लिया था।

निशा ! हाँ वही तो है। दिवाकर ने दूर से ही उसे पहचान लिया था। शायद निशा ने भी। दिवाकर की बाहें अनायास खुल गयी थी और निशा ने भी झप्पी का जवाब झप्पी से ही दिया था।

कैसी हो ? दिवाकर ने पूछा।

अरे बहुत बढ़िया। तू बता ? सही लग रहा है यार तू तो।  निशा ने सारी औपचारिकताओं को भगाते हुए और उसका ऊपर से निचे तक निरीक्षण करते हुए कहा था।

मैं भी ठीक हूँ। लगता नहीं की तेरे से पहली बार मुलाकात हुयी है।  ऐसे लग रहा है बहुत वक़्त से हम वाकिफ हैं।  नहीं क्या ?  दिवाकर ने कहा था। हालांकि जान बूझकर वो अपने अंदर उमड़ते प्रशंसा के शब्दों को विराम दे गया था अन्यथा निशा के चेहरे पर हल्की थकान के बावजूद वो बहुत यम्मी सी लग रही थी।

हाँ, पहले थोड़ा सा शंकित थी।  अब तेरे से मिल के सब मस्त लग रहा है। बता जिंदगी कैसी चल रही है ?
निशा ने चारों तरफ नज़र घुमाते हुए कहा था।

बड़ा वक़्त हुआ बात करते करते, अच्छा हुआ तू आ गयी। तू भी मस्त लग रही है, बस थोड़ी थकी थकी सी दिख रही है। जिंदगी ओके ओके है। सफर में परेशानी तो  नहीं हुयी ?

नहीं रे।  सब बढ़िया रहा। और देख तेरी ऐश कराने आ भी गयी, अच्छा अब सारी बातें स्टेशन पर ही करनी हैं ? निशा ने छेड़ते हुए कहा था।

दिवाकर ने झेंपते हुए बैग ले लिया और निशा से बतियाते हुए पार्किंग की तरफ बढ़ चला। पार्किंग में जाकर याद आया कि जो गुलाबों का हिस्सा उसने निशा के लिए रखा था वो तो कार में ही रखा रह गया था। बैग को डिक्की में  रखा।  निशा बहुत सहज थी।  अपनी कलाकृतियों की तरह सुन्दर भी। सबसे अलग बात ये थी कि वो अपनी सी ही लगी थी। ऐसा एक बार भी नहीं लगा कि वो पहली बार उस से मिल रहा है। 'कला के साथ सौंदर्य' उसे देखकर  दिवाकर के मन में यही बात अनायास आई थी। बहुत ही सौम्य। हंसती थी तो थोड़ा सा नाक ऊपर चढ़ता। आँखों में बहुत निश्छलता। होंठ शंकित होकर नम हो गए हों जैसे। नीचे वाले होंठ को दाँतो में दबा कर कोई बहुत महत्वपूर्ण बात को छुपा लेने का प्रयत्न कर रही हो जैसे। कुछ चाह कर भी ना कहा हो।  उसका यूँ  होंठो को दबाना, सुडौल शरीर, थोड़े से सांवले रंग के साथ सही मायने में अंग-प्रत्यंग का सामंजस्य। बहुत ही सुन्दर। यम्मी ! दिवाकर मन ही मन थोड़ा झेंप गया था अपने अवलोकन से। निशा के चेहरे पर मुस्कराहट, हल्की सी, धवल दन्तपंक्ति की झलक जो दिवाकर की सोच को प्रतिम्बिबित कर गयी। दिवाकर ने आगे बढ़ कर कार का दरवाज़ा खोला और निशा के  बैठने के बाद धीरे से बंद कर दिया। वह कार की ड्राइव सीट पर बैठ गया। ह्रदय पर उगे गुलाबों का छोटा सा हिस्सा उसने निशा को अर्पित किया। गुलाब मुलायम और गरिमामय, खूबसूरती और कांटे,  सम्मान और चाह ये सब ही तो है गुलाब।

कहाँ चलें ? बड़ा बेवकूफी वाला सवाल दिवाकर ने पूछा था।

तेरे शहर में हूँ।  मुझे क्या पता।  जहां दिल करे ले चल बस। निशा ने हंसती आँखों के किनारे से झांकते हुए शरारत से कहा।

ठीक है।  हम पहले अतिथि गृह चलते हैं।  मैंने तेरे रुकने का इंतज़ाम उधर ही किया है। थोड़ा फ्रेश व्रेश हो ले।  बाद में शहर दिखाता हूँ।  दिवाकर ने कहा।

दोनों अपने अपने विचारों में डूबे धीरे धीरे शहर के शाम के ट्रैफिक को झेलते हुए  अतिथि गृह की तरफ बढ़ रहे थे । ' देखो फिर हम मिल ही लिए, अच्छा लग  रहा है।  जल्दी ही मिल लेना चाहिए था ' नहीं क्या ? दिवाकर ने मौन तोड़ते हुए कहा था।

'नहीं ! अभी मिले हैं तभी बढ़िया है।  जो कार्य जिस वक़्त होना है वो ही सही है, वक़्त तो मुकरर्र होता  है न ' निशा ने जवाब दिया।

दिवाकर और निशा  बातें करते हुए कब अतिथि गृह पहुँच गए पता भी ना चला।  दिवाकर ने अतिथि गृह में पहले से ही दो सुइट के लिए बोल दिया था।  बैग और दूसरा सामान लेकर दोनों जब अतिथि गृह पहुंचे तो केयर टेकर ने बताया की एक ही सुइट उपलब्ध हो पाया है। दूसरा आज खाली होना था जो नहीं हो पाया है। उसने रात तक दुसरा भी उपलब्ध हो जाने की बात कही।  निशा का सामान सुईट में ले जाते हुए दिवाकर ने निशा को स्तिथि से अवगत करवा दिया था।

'ओये दूसरे का भी इंतज़ाम कर ले। मेरे साथ रहने के सपने न देखियो।  तेरा भरोसा ना है मुझे।' निशा ने एक आँख दबाते हुए कहा था।

'अरे !हो जाएगा, वो बोल तो रहा है रात तक कोई  उपलब्धता बन जायेगी। वैसे भी चिंता ना कर मैं कुछ ना करने वाला। ' दिवाकर ने भी हँसते हुए जवाब दिया उसे विश्वास था कि ये इतना बड़ा मुद्दा नहीं था।

निशा भी हमेशा से बिंदास ही रही है।  दोनों को एक दूसरे का बिंदासपन पसंद  भी है।  जो दिल में है वो ही जबान पर। चाहे गाली हो या फिर लुकी छुपी कोई बात। दिवाकर को कभी लगा ही नहीं की उसे कुछ छुपा कर कहना है। कोई बात सोच कर बोलनी है। निशा भी हमेशा यही कहती रही है कि तेरे साथ बात करके मजा आ जाता है यार! बातें पुरे जहां की, रिश्तों की, आवारगियों की, प्रेम किस्सों की, कला की, लेखन की, फिल्मों की, पोर्न की और भी पता नहीं कितनी बातें। दीवानों सी बातें और उनमें बीतती रातें। कितनी बार तो आँखे पहले बंद हुयी थी बातें बाद में। सच में इतनी बातों का सामर्थ्य निशा ने ही दिया था अन्यथा दिवाकर उस श्रेणी में आता ही नहीं था। सामान्यतः काम से काम और बहुत कम बातें। परन्तु इस अंकुरित होते छोटे से रिश्ते से दोनों खुश थे।प्रफ्फुलित थे। दिवाकर का आत्मविश्वास और निशा के प्रति सम्मान वक़्त के साथ बढ़ता ही रहा है।

निशा जरा फ्रेश हो जा। तब तक मैं चाय का इंतजाम करता हूँ।

ओके बॉस ! मैं यूँ गयी और बस यूँ आई ।  थोड़ा सा इंतज़ार कर।  निशा ने बैग से कुछ सामान लिया और स्नानघर के दरवाज़े के पीछे लुप्त हो गयी।

दिवाकर ने फ़ोन पर दो चाय के लिए बोला और सुस्ताने के लिए सोफे पर पसर गया। चाय आने के साथ निशा भी बाहर आ गयी। चाय की बजाय निशा का तरोताजा चेहरा देखकर दिवाकर को ज्यादा स्फूर्ति महसूस हुयी थी।  उसने दबी आँखों से नरम और गीले बालों को निशा के चेहरे पर गिरते हुए देखा।  बहुत ही मद्धम और मीठी सी हलकी सी खुशबू उसके अन्दर समाकर, हलके सुरूर का काम कर रही थी। खूबसूरत आँखे, गीली नहाई हुयी सांवली सी त्वचा। ग़ज़ल बहुत प्यारी सी। वही नम से अधर और  उनमें से झांकते चांदनी से नहाये हुए नन्हे नन्हे धवल संगमरमरी। खुदा खैर करे दिल में ऐसा वैसा कभी कुछ आया नहीं था परन्तु कुछ क्षण दिल को मजबूर कर देते हैं, दिवाकर भी उस क्षण चित हो गया।  उसका धीरे से मुस्कराकर होंठ को दबाना। जान लेवा !
"सुन्दर !बहुत सुन्दर " दिवाकर के मुंह से चाय की भाप की तरह शब्द अपने आप निकले।

क्या सुन्दर ?  निशा ने हँसते हुए ऐसे पूछा जैसे दिवाकर के मन की बात जान ली हो ।

चाय के साथ तुम्हारा आना, दिवाकर ने बात को सम्भालते हुए हड़बड़ी में कहा।

दोनों ने साथ में चाय ली और तरोताज़ा होकर घूमने निकल पड़े थे। इस शहर में ऐसा कुछ था नहीं जो दिवाकर ने न देखा हो। काफी साल बाद शहर से जान पहचान पुरानी  हो जाती है। कही जाओ तो जानने वाला कोई मिले न मिले वहां की दीवारें फूल पत्थर सब पूछने लगते हैं 'कैसे हो ? किधर थे ? बड़े दिन हुए आते ही नहीं ? लगता है जैसे हर चीज जिन्दा हो गयी हो और एक जगह खड़े खड़े या यूँ कहें कि पड़े पड़े उकता गयी हो। दिवाकर जब कभी किन्ही बेकार या बहुत अच्छे क्षणों में शहर में घुमा उसे हमेशा ऐसा ही लगा कि हर निर्जीव वस्तु ज़िंदा होकर उसी के अंदाज में रम गयी है, मन खुश तो सब प्रफ्फुल और उदास तो सब उदास। परन्तु आज शहर नया था। नयी नज़र थी।  दिवाकर को बेचैनी थी कौन सी ऐसी जगह होगी जो निशा को अच्छी लगेगी।  इसी उधेड़बुन में वो लगभग आधा शहर घूम लिए बिना कहीं रुके। नदी के किनारे बैठना इतना मनोरम होगा, शाम पानी की कल-कल सी संगीतमय होगी, वो हवा जो निशा को छूकर आई और उसके चारो तरफ लिपट गयी इतनी चंचल होगी, खुशबू से तर, जहाँ के सारे इत्रों से परे बहुत मीठी सी, यम्मी सी ! दिवाकर ने कभी सोचा न था। कब खाने  का वक़्त हो चला कब रेस्त्रां पहुंचे इसकी यादें धुंधली हैं, उज्जवल तो निशा थी और उस पर फैली चांदनी। रेस्तरां में बहुत धीमे धीमे संगीत था। कानो को सुहाने वाला। उस से भी मधुर निशा की हंसी थी।  जो गाहे बगाहे निकल रही थी। बातें थी। भूख तो ज्यादा नहीं थी। दोनों को बहुत थोडा वक़्त मिला था और जानने को ज्यादा था। रात का खाना खाते खाते बहुत देर हो गयी थी।कब आधी बीत गयी पता ही नहीं चला।  जब अतिथि गृह लौटे तो केयर टेकर भी सो चुका था।

"दुसरे सुइट का क्या हुआ ? उपलब्ध हुआ की नहीं ? बातों बातों में सब भूल गए या जान बुझकर याद नहीं किया तूने।" निशा ने छेड़ते हुए पूछा।

"ओ तेरी। यार जब फ़ोन किया था तब तक तो खाली नहीं हुआ था अभी पता नहीं सब तो सो चुके हैं।"  दिवाकर ने कहा। "फिर भी पूछता हूँ। "

दिवाकर और निशा सुइट में आ गए थे।  दिवाकर ने बैठ कर फ़ोन किया तो नींद से बोझिल आवाज़ ने बताया कि आज केवल एक ही सुइट मिल पायेगा। "लो जी हो गया अब एक ही सुइट है।" दिवाकर ने निशा को कहा।

'क्या मतलब एक ही है ? मैंने तुझे पहले ही कहा था कि दो सुइट का इंतजाम करना। एक ही है !! तू सोचना भी मत मेरे साथ रहने का। जा अब निकल यहाँ से। ' निशा के चेहरे पर कठोरता के भाव थे, आँखों और बातों से टपकने वाली शरारत गायब थी। पहली बार बहुत रूखी सी निशा। ऐसा बर्ताव निशा से दिवाकर को अपेक्षित नहीं था।

'अरे मैं एक तरफ कहीं भी सो जाउंगा यार ! अब इत्ती रात को किधर जाऊँगा ? मेरे मन में और दिमाग में कहीं भी तेरे को लेकर गंदे ख्याल नहीं है इसलिए प्लीज मुझे सोने दे कहीं भी, जहा तू कहे।'  दिवाकर ने मजबूर सा होकर ये बात कही थी।

' नहीं तू यहाँ नहीं रुकेगा। अन्यथा मैं अभी के अभी चली जाउंगी। ' निशा का क्रोध आँखों से स्पष्टतः प्रकट था ।

'ठीक है ।  मैं जाता हूँ। ' कहकर दिवाकर बिना किसी बहस और बात के बाहर निकल गया था।

रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी। २-४ घंटे में पौ फटने वाली थी। निशा का ये बर्ताव दिवाकर की समझ के परे था। उसने कार का दरवाज़ा खोला और अन्दर बैठ गया।  विचार इतनी तेज़ी से उसके दिमाग में द्वंद्व  मचा रहे थे कि इग्निशन में चाबी घुमाने की फुर्सत ही नहीं दे रहे थे। कमाल है यार महीनो में लगातार घंटो की गयी बातों में हम बस इतना समझे हैं एक दुसरे को। उसे अपने आप से घिन्न आ रही थी। ऐसी कौनसी हरकत है उसकी जिसकी वजह से निशा का ये रूप उसे देखने को मिला है। उसके दिल में खुद से ज्यादा सम्मान और इज्ज़त निशा के लिए है। वो उसका प्रसंशक है, निशा उसे अच्छी लगती है।  उसने निशा के सामने भी ये बात कबूली है कि उसका सौन्दर्य असहनीय हो जाता है।  पर इस सब का मतलब ये नहीं है किउसके मन में कभी भूल से भी निशा के लिए कोई गलत बात आई हो। उसने कोशिश की थी सुइट के लिए, बदकिस्मती से ऐन वक़्त पर वो कोशिश नाकामयाब रही ।चाहते तो थोड़ी सी बची रात भी बातों में गुजर जाती, पहले भी  ऐसा हुआ है फिर आज  आमने सामने होने पर ऐसा क्यों ?  ५-७ मिनट बैठे भी नहीं। ये भी नहीं कि क्या करेंगे? कहाँ जाओगे ?  बस जाओ! कमाल है यार ! दिवाकर तू गधा है, बेवकूफ है ,साला झंड है। जिसके लिए तेरी नजरों में इतना सम्मान है वो ही तुझे नहीं समझ रही।  एक साथ रहना कभी भी प्राथमिकता नहीं थी। साथ में सोकर कभी भी रिश्ते नहीं बनते। अगर बनते तो रात्रि में रेल के सभी एक साथ सफर करने वाले यात्री  सुबह में एक दुसरे के रिश्तेदार बनकर उठते। जो रिश्ता है दोस्ती का, बातों का, स्नेह का जो भी है दिवाकर ने उस से ज्यादा कभी सोचा भी नहीं। ओर निशा के लिए कुछ गलत ? वो तो कभी भी नहीं। फिर इतना रुखा व्यवहार। क्या कारण हो सकता है।  दिवाकर के सर में दर्द होने लगा था। उसने दो चार लम्बी लम्बी साँसे ली। दर्द बढ़ रहा था। दिवाकर ने आपने आप को सिकोड़ लिया लगा कि दर्द भी संभवतः शरीर के साथ सिकुड़ कर कम हो जाए। पर ऐसा होता नहीं है।  जब आपके विश्वास पर चोट लगी हो तो दर्द सिकुड़ता हुआ ज्यादा मुखर हुआ है। बहुत देर तक दिवाकर  बैठा रहा। आँखों में असंख्य दृश्य, मन में हज़ारों सोच, टुकड़े टुकड़े होता विश्वास, ह्रदय विक्षिप्त कुछ अश्क़ लुढक गए थे।  अश्को के साथ विचार थोड़े नर्म हो रहे थे।  निशा का अनुभव भूतकाल में ठीक नहीं रहा होगा शायद। कहीं कुछ टूटा होगा कभी।  अन्यथा इतनी बेरुखी कैसे? इंसान ही तो सिखाता है कि किसी पे भरोसा मत करो, सब इंसान कुत्ते होते हैं, जन्म से तो कोई नहीं सीख के आता। सिखाता ही नहीं सुबूत भी दे दिया करता है अपने पिशाच होने के। निशा ने भी यहीं सीखा है। मजबूरी रही हो शायद। घर की सारी इज्ज़त तो लड़की से जोड़ देते हैं हम लोग और उसी आधे तबके को दबाने की कोशिशें करते रहते हैं। इज़्ज़त के साथ कितनी बड़ा दायित्व उन पर डाल कर हम केवल तमाशा भर देखते हैं, या फिर पिशाच बन विश्वास को तार तार करते हैं। इसी किसी हृदय के तारों की मार का दिवाकर  शिकार बन गया हो शायद।  दूसरे पहलू को सोचते सोचते दिवाकर ने कार की ड्रावर को टटोला कहीं कोई सरदर्द की बट्टी मिल जाए, पर व्यर्थ। मन में विचार और करवटें अनवरत थे।

दूध वाले की घंटी की आवाज़ सुनी तो दिवाकर की नींद खुली। दर्द की स्तिथि बदलकर कमर पर पहुँच चुकी थी। करवटों और विचारों में कब उसकी आँख लगी उसे पता भी नहीं चला। कार के सारे सीसों पर पानी जम चूका था। बाहर कुछ भी स्पष्ट नहीं था। दिवाकर ने थोड़ा प्रयास कर आँखे खोली। इधर उधर हाथ मारकर फ़ोन ढूंढा। कार से बाहर आकर कमर को सीधा किया और फ़ोन को जांचा निशा के ३-४ सन्देश रखे थे। उसने बिना सोचे निशा को फ़ोन लगाया।

'तू ठीक है ?' दिवाकर ने पूछा था।

' हाँ ! आजा . . . . . .  किधर है तू ? तेरी कार तो यहीं है रात भर से। ' निशा ने कहा।

'दरवाज़ा खोल। ' दिवाकर ने कहा और फ़ोन काट दिया।

 निशा ने उनींदी आँखों से दरवाज़ा खोला। दिवाकर को सामने देख बस एक करुण सी मुस्कराहट निशा के होंठो पर आई। दिवाकर भी हंस दिया था।

' सोयी नहीं क्या ? अरे ये  क्या है ? तेरी गाडी तो रात की है अभी से सामान की पैकिंग ?' दिवाकर ने थोड़ा अचरज से पूछा।

' हाँ'  . . . . . .सोच रही थी निकल जाती हूँ। रात के व्यवहार के बाद तेरे सामने पड़ने की हिम्मत नहीं हो रही थी। मुझे क्षमा कर दे यार!' निशा ने भीगी आवाज में कहा।

दिवाकर अंदर आ गया था सोफे पर बैठते हुए उसकी नजर एक कागज़ के टुकड़े पर जम गयी ।  जिसमें लिखा था "मुझे नहीं पता ऐसा व्यवहार तुम्हारे साथ मैंने क्यों किया ? सब इतनी जल्दी  हुआ।  सोचने पर लगा कि नहीं हम इतना तो एक दूसरे को जानते ही हैं, तुम मेरे साथ कभी गलत नहीं होने दोगे। विश्वास तो मुझे खुद पर नहीं है। मैं हमेशा  सब कुछ उल्टा पुल्टा कर  देती हूँ। ये सब होने के बाद दिल था की भाग जाऊं। तेरा सामना करना मुश्किल है, इसलिए मैं जा  रही हूँ। . . . . . निशा !"

'मुझे भी माफ़ करना यार !' थके शब्दों में दिवाकर ने कहा 'मैं जाने क्या क्या सोच गया, शुक्र है तू नहीं गयी वरना अपने आप  को माफ़ भी नहीं कर पाता। '

दिवाकर का रात भर का मंथन और ये बातें सब गढ़मगढ़ हो गयी थी।  परन्तु इतना तो तय हो गया था की निशा की मंसा गलत नहीं थी न ही दिवाकर की। दोनों ने  एक दूसरे को देखा, आँखे नम सी थी। रिश्ता मजबूत हुआ था, समझ बढ़ी थी, सम्मान के नए स्तर स्थापित हो रहे थे।  दिवाकर ने बांहे फैलाई निशा ने वैसे ही उसका प्रत्युत्तर दिया। दोनों अपनी बेवकूफियों पर जोर से हंस पड़े। निश्छल। सौम्य।



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