Monday, June 1, 2015

ओ रे निष्ठुर-5...


अन्दर
बहुत अन्दर से
टूटने की आवाजें
निरंतर
शोरगुल करती हैं
पीड़ा
सहन होती नहीं अब।

तुम जा रहे हो
मालूम मगर
दर्द मुखर
खो कर
रो कर है
क्या कहूं
तुम जो रुक जाओ प्रिये अब।

बात कही
अनकही
तेरे दर से
लौटी खंजर बनकर
कितना समझूँ
सोचूं कुछ कहूं कि चुप रहूँ अब।

टूटन
पीड़ा
बातें
उलझन कुछ तो सुलझा दो
ओ रे निष्ठुर !!!!











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