Monday, November 3, 2014

ओ रे निष्ठुर -3

शरीर का दर्द है मुखर
उभरी हैं आँखों तले झुर्रियाँ,
एक तेरी सोच है
एक गठरी मजबूरियां,
उलझे उलझे धागे
और गांठो सी दूरियां।

साँसे कैदी सी कुलबुलाती
धड़कनें बवाल मचाती,
बदहवास हालात
हर नज़र सवाल उठाती,
आँखों में छुप रहती 
याद और कहाँ जाती। 

तुम्हे सोचते अश्क़ ढलके 
रात चली कि भोर हुई,  
यादों के पड़े झूले
बंधन डोर कमजोर हुई,

ओ रेगिस्तां के शीतक
तुझ बिन निरा ढोर हुई।  
तुम्हे सोचते सोचते
मैं शहर का शोर हुई।

आजा अब तो
शोर मिटा जा

ओ रे निष्ठुर !











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