Friday, September 19, 2014

कहानी - "चला गया....."

कहानी - "चला गया....."

'इनसे पैसे निकलवाना पागल कुत्ते के मुंह से हड्डी निकलवाने जैसा है।  पहली बात तो निकलवा नहीं पाओगे अगर कामयाब हो भी गए तो भी रेबीज वाले इंजेक्शन पक्का लगेंगे। '

हाँ भाई सही कह रहे हो, कम-स-कम पच्चासियों चक्कर तो मैं भी लगा चुका हूँ।

अब देखो बिना किसी अप्रूवल के इन्होने प्रोजेक्ट का इश्तिहार दिया। लोगों से पैसे जमा करवाये। उनके साथ एग्रीमेंट किया। आज दो साल के बाद भी न फ्लैट दीखता है और ना ही पैसे वापिस मिलने के आसार। बहाने पर बहाने लगाए जा रहे हैं।  अब कौन कोर्ट कचेहरी के चक्कर में फंसे।  बहुत मुश्किल है इन भू माफिया लोगों से लड़ना।  यूसुफ़ ने कहा।

एक बुजुर्ग दम्पति बड़े गौर से हमारी बाते सुन रहे थे।  दोनों की उम्र सत्तर से ऊपर रही होगी।  चेहरे पर मायूसी के साथ थकान भी झलक रही थी। एक बड़ा सा झोला महिला के कंधे पर था जिसके वजन से वो बैठ कर भी एक तरफ झुकी थी परन्तु झोला अब भी किसी लाडले बेटे सा उसके कंधे पर टिका था। बुजुर्गवार शायद संसार के कड़वे अनुभवों से लदे होने की वजह से झुके हुए थे।  दोनों के चेहरों को देखकर लगता था किसी भी क्षण रो देंगे। गौर करो तो महिला की आँखों में दृढ़ता थी। उनकी नजरें कभी छत पर टिकती कभी फुसफुसा कर कुछ कहती और फिर सर को झटक कर बैठ जाती।  लग रहा था जैसे किसी कॉर्पोरेट वर्ल्ड की बड़े वाली मीटिंग उनके भीतर ही चल रही थी।  जिसमें वे बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दो पर अपने साथ के लोगों के विचार सुन रही थी, जाँच रही थी फिर तर्क कर रही थी और किसी निर्णय पर आकर उसको फिर से मीटिंग में रख रही थी।  प्रक्रिया जारी थी। बुजुर्गवर थोड़े खामोश थे।  वैसे भी आमतौर पर पुरुष शादी के बाद खामोश ही होते हैं और इनको तो अब तक इस तरह की तमाम आदतें लग चुकी होंगी।  यूसुफ़ की बातों से ध्यान भटक कर इन दम्पति पर ज्यादा चला गया था।

तो फिर इन लोगों ने तुमसे क्या कहा है ? क्या पैसे वापिस दे रहे हैं ? महिला ने मुझसे पूछा।

हाँ मान तो गए हैं, 2 साल से ऊपर हो गए हैं पैसे दिए। पहले तो न नुकुर कर रहे थे परन्तु अभी उतना ही पैसा वापिस करने पर राज़ी हुए हैं जितना जमा करवाया था। मैंने कहा।

क्या आसानी से मान गए ? मतलब क्या कहा आप लोगों ने ? महिला ने आँखों की पुतलियों को फैलाते हुए पूछा।

आसानी से.……नाह.………इधर आसानी से कुछ ना होता। पहले तो हम ३-4 लोग दफ्तर में आकर शोर मचाते रहे और फिर भी ना माने तो कोर्ट में जाने की बात कही।  पता नहीं क्या-क्या पापड बेलें हैं माता जी तब जाकर पैसे निकालने को राज़ी हुए हैं और वो भी 2-2 किश्तों में।  चेक दिए हैं ऐसे अकाउंट के जिसमे पैसे हैं ही नहीं।  यूसुफ़ ने तल्खी से बताया।

बहुत मुश्किल है बेटा।  हमने तो पैसे भी बहुत दे दिए हैं। वक़्त पर किस्तें देते रहे हैं। सोचा था इधर ही रहेंगे बेटा इधर जॉब कर रहा था। परन्तु  जिस मकसद हेतु फ्लैट लेने की सोची थी अब तो वो भी खत्म हुआ। बुजुर्गवार बहुत धीरे से बोल रहे थे फिर कुछ सोचते हुए थोड़े उदासीन हो गए, आवाज़ भी भरभरा सी गयी। छत की तरफ देखते हुए धीरे से बोले । ....... बेटा था।

महिला ने जोर से कहा " इन्हें सब मालुम है। सब बता दिया फिर भी चक्कर कटवा रहे हैं। सरकारी दफ्तर से भी ज्यादा बुरा हाल हो गया है।  इनके पास फंसो तो पता चलता है।  काम भले धीरे होता हो पर सरकारी हो तो कहीं न कहीं फ़रियाद सुनी जाती है।  कम-स-कम आस तो रहती है।  इधर तो बहुत बुरा हाल है। और सरकार लगी है सब प्राइवेट करने में।  खा जायेंगे देश की भी और हम जैसे लोगों को भी।  हमारी तो आस भी खा जायेंगे ये लोग।

बेटा था ....... सुनकर , जानकार एकदम से माहौल थोडा ज्यादा संजीदा हो गया था जिसे उन बुजुर्ग महिला ने बातों से सँभालने की कोशिश की।  उन्हें मालूम रहा होगा कि उनके साथ बैठा वो इंसान जो जिंदगी भर उसे और परिवार को सम्भालता रहा है अब बहुत कमजोर हो गया है। टूट सकता है। दिक्कतें बढेंगी बस , कम न होंगी।  एक बात तो पक्की है कि जब खुद के बेटे बेटियां हों और फिर ये .……'बेटा था' सुनना ही बहुत सा दर्द, बहुत सी सोचें और बहुत से अनचाहे अनुभव करा जाता है। जिन अनुभवों से हम खुद को योजनों दूर रखना चाहते हैं। एक शीत सा रीढ़ में दौड़ जाता है।  अंग सुन्न से पड़ते नज़र आते हैं।  मैं जान बुझकर उठ खड़ा हुआ। फ़ोन को कान पर लगा लिया।  ध्यान भटकाने का सर्वप्रिय साधन है फ़ोन। कहीं से भी उठना हो, बाहर जाना हो, बात को थोडा रोकना हो मतलब जब ब्रेक लेना हो तो फ़ोन कान के लगाओ और खिसक लो।  मैंने वो ही किया।  थोडा गैलरी में बाहर चला गया।  उन सभी अनुभवों से पांच सात सेकंडो में ही सामना हो जाने से आँखों को पोंछने की नौबत आ चुकी थी।  बाहर कुछ खुद को सांत्वना देकर ही मैं फिर से उन बुजुर्गवार से रूबरू हो सकता था। मुझे हमेशा ही ऐसे माहौल से डर लगता रहा है।  जिस बात की सोच ही इंसान को तोड़ सकती है उसकी सांत्वना कोई कैसे किसी को दे सकता है।जब मात्र सोच से मेरा मन हिल गया और मैं खुद को ही कुछ समझा नहीं पा रहा तो कैसे मैं कह सकता हूँ किसी को कि ये तो भगवान् की मर्ज़ी थी। ……उसके आगे किसका जोर है……… बला बला ………इंसान जिस मुआमले में खुद को सांत्वना अगर दे पाता है तो ही दुसरे को दो शब्द कहने की हिम्मत हो सकती है।  मेरी हिम्मत हमेशा जवाब देती है।  ऐसे माहौल में ऐसी घटनायों पर मैं खुद को ही नहीं संभाल पाता तो मैं बस चुपचाप उनके पास बैठ जाया करता हूँ। पहले तो जा भी नहीं पाता था अब सर के बाल सफ़ेद हो आयें हैं तो जाने लगा हूँ परन्तु सांत्वना के शब्द नहीं निकल पाते।  हालांकि कुछ लोग बखूबी ये कार्य कर रहे होते हैं।कुछ खुद को नियोजित कर, हिम्मत बटोर, फिर से उन महिला के बगल वाली सीट पर कब्जा कर बैठा था।

आजकल ज़माना बहुत फ़ास्ट है बेटा।  सबको सब कुछ चाहिए। हमने बोला था कोई ऐसा मकान लो जो तैयार हो बस।  पता नहीं क्या सोचकर बेटे ने पैसा इधर फंसाया। ये बहुत शातिर होते हैं। कितने सब्ज बाग़ दिखाते हैं। फ़ोन पर फ़ोन , घर से कार में लेकर जाते हैं, फ्लैट तो ऐसे दिखायेंगे जैसे इस से आलिशान कोई वास्तु का नमूना दुनिया में नहीं है।  फाल्स सीलिंग, फाल्स वाल, फाल्स वादें सब कुछ फाल्स तो फिर मकान कहाँ से सही होगा। हम चकाचौंध हो जाते हैं।  एक बार हामी भरी, थोडा पैसा दिया फिर नोटिस पर नोटिस पैसा दो पैसा दो।  किधर से दें भाई ? कितना दें भाई ? प्रोजेक्ट का नामो निशाँ नहीं पर पैसा फिर भी चाहिए। बुजुर्ग महिला बताये जा रही थी।  अन्दर से मीटिंग के लिए बुलावा आ गया, महिला ने बुजुर्गवर को अन्दर भेज दिया। वो बड़ी मुश्किल से उठते हुए कुछ मन में बडबडाते से अन्दर चले गए।

                                अब तुम ही बताओ बेटा घर में कमाने वाला एक खर्चे अनेक कैसे काम चलेगा।  एक तो किराया दे रहा था उपर से किश्तें शुरू हो गयी।  मेरा बेटा मैनेजर था। मेहनती भी था। आजकल की लड़कियों का तो पूछो ही मत। पति वक़्त पर घर चाहिए। पैसा भी चाहिए।  घर में सब ऐशो आराम भी चाहिए।  किधर से आये, तुम ही बताओ ? या तो पति वक़्त पर घर आयेगा या फिर पैसा कमाने के लिए उसे ज्यादा वक़्त देना होगा।  सब चाहिए तो कुछ कुर्बानियां भी देनी होंगी। परन्तु आजकल की लड़कियों को ये मंजूर नहीं। उन्हें तो सब चाहिए।हम भी तो थी।  मजाल है कभी किसी चीज के लिए मजबूर किया हो, अपनी मर्ज़ी से काम किया इन्होने हमेशा। घर की चिंता कभी न करने दी। पति है तो सब है कुछ देर से आये तो क्या पैसे घर में ही तो आते हैं।  सबको तो ऐश वाली नौकरी नहीं मिलती।  मेहनत भी करनी ही होती है।  समाज की सारी जिम्मेदारी भी फिर आदमी को ही निभानी होती है। कुछ मुसीबत आये तो फिर हम बुक्का फाड़ के रो देती हैं।  करना कराना कुछ होता नहीं, हाँ मुसीबत में इजाफा जरुर कर देती हैं। ज्यादा पैसा चाहिए तो खुद भी थोडा काम कर लो। आजकल तो सब करती हैं।  हमने कभी नहीं रोका। पर इंसान को इतना मजबूर तो मत करो।  बुजुर्ग महिला भरभरा गयीं थी।  आँखों में आंसू नहीं थे। वो तो कब के सुख गए थे। अन्दर जाने हेतु उठ गयीं थी।  मैं भी सीट छोड़ चूका था।अब हम इस फ्लैट का क्या सर फोड़ेंगे। दिल्ली रहते हैं। न ही देखभाल हो पाएगी न ही कोई रहेगा।  आना जाना ही इतना मुश्किल है। पिछली बार वकील से चिठ्ठी लिखवाई थी तो इन्होने बुलाया है वर्ना तो जात भी नहीं पूछ रहे थे। अब बुढ़ापे पे किधर धक्के खाएं।अन्दर घुसते हुए कह रही थी। ………………  जिसके सहारे थे वो तो चला गया । घर वक़्त पे आओ। सब चाहिए। कहाँ से किश्त देता?  कहाँ से किराया? बस चला गया।






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