Friday, June 27, 2014

सफा बंद.....

रेत अब रही नहीं है 
मेरे गाँव में 
खेल नहीं पाता 
गलियां 
पक्की हो गयी हैं 
दोस्तों के दिल पत्थर 
जो बिना थके 
माँ बाबा से पिट पिटकर 
रात के तीन पहरों तक 
दरांती खेला करते थे।  

मतीरे और काकड़ियों  में 
वो स्वाद रहा नहीं है 
लस्सी का लेन देन 
नहीं होता 
अब राबड़ी के सबड़के 
लगते नहीं हैं 
मेरे गाँव के घर 
मकान बन गए 
हमेशा चोपट खुले दरवाज़े 
रहने लगे हैं 
बंद सफा बंद। 

बहुत कड़वी 
हो रहीं हैं 
जीना दूभर करती सी 
घर की संसार की बाते 
मैं कभी माँ की सुन रहा हूँ 
कभी घर को देख रहा हूँ 
बाकी सब 
खेल रहे हैं 
खेल बदल रहे हैं 
मेरे गाँव के 
और मैं बड़ा हो रहा हूँ। 

 






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