Wednesday, November 23, 2011

मिट जाएगी .....बरबस !

तुम कहना तो चाहती हो
बहुत कुछ
मद्धम मद्धम कंपकंपाते होठो से
ये हिलते हैं
धीरे से
सरगोशी खुद से
और फिर कुछ कहने से पहले ही
बंद हो जाते हैं,

जैसे झीनी सी हवा
दो बेहद पतले से पत्तो को
हिलाकर
पास लाकर
फिर दूर कर देती है
और वो अनथक पर्यास
करके भी मिल नहीं पाते,

इनायत जाने इन होंठो की
कब मेरी किस्मत
सजाएगी
जब ये खुद-ब-खुद हंसी का
शेहरा पहनकर 
मेरे अथ्रुयो से लिपट जायेंगे,

जंगल में अनायास जैसे
कोई बेल
बढ़ते बढ़ते
लिपट गयी है अपने पेड़ से
और अब जिन्दा रहेगी
उसी पेड़ के साथ
जुदा होने पर
मर जाएगी
मिट जाएगी .....बरबस !



No comments:

Post a Comment