Saturday, June 27, 2015

ओ रे निष्ठुर-8

कसम से
कुछ ठूंठ
रेगिस्तान की भभकती 
रेत में
भरी दुपहरियों की
लू को सहते हुए
भी हरे रहते हैं।

मेरे हृदय में
तुम्हारा प्रेम
अब भी लहलहा रहा है
जाने कब
कौनसी याद
बरसती है
और
उसमें पानी हवा खाद
देकर चली जाती है।

मेरे हृदय से
अपने वजूद को
मिटाने खातिर
सहस्त्रो यातनाएं
देनी होंगी
मैं सहने को सज हूं
क्या तुम तत्पर हो

ओ रे निष्ठुर !!!!



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