रेशम से बालों में सिमटकर
घनघोर मुलायम तुम
सिल्क सी बाहों वाली
इतना आंच कहां से लाती हो,
दहकी दहकी सी आग में बहुत जलाती हो ।
उड़ते बादलों की मानिंद
फाहों सी बिखरती
चांद से खेलती
चांदनी बन जाती हो तुम
सौम्य सुंदर लगती हो जब खिलखिलाती हो,
पर इतना आंच कहां से लाती हो।
नदी की शीतलता समेटे
किनारों संग गाती
अनवरत सदा तुम
प्यासा यूं पहाड़ों को छोड़ जाती हो,
पर इतना आंच कहां से लाती हो ।
कानों में रतिकांत
कटि में पुष्पवान
तिरछे से हद्द मीठे होंठो को
कामदेव के तीर बनाती हो,
इतना आंच कहां से लाती हो।
ग्रीवा सुराही
अंग में खुशबू समाई
थोड़ी सी लज्जाई सकुचाई
कानों में सांसों के सुर सुनाती हो
इतना आंच कहां से लाती हो ।
Mashah Allah..! Kamaal pe kamaal kiye jaa rahe h....achcha padhhne ko milta he...Shukriya
ReplyDeleteपढ़ते रहिए, यही हौंसला है
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