Friday, January 15, 2016

ओ रे निष्ठुर -15

टूटते हुए दरख्त
पहाड़, पत्थर
और
बनते नए रस्ते
सब सहज है,

रिश्ते ऐसे नहीं होते
टूटते हैं
रिक्त होते हैं
उनकी जगह
नया कुछ भी नहीं उगता,

रह जाता है
एक गहरा खालीपन
ओर ज्यादा
गहराता हुआ,

तुझ बिन
बस ना होने के जैसे
सब है तो
पर किधर है
ढूंढने पर भी लब्ध  कहाँ 
नज़र सूनी है
सूनापन ही है,

तुम्हे तो पता है ना
ओ रे निष्ठुर !



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