Tuesday, August 13, 2013

अरमां लौटाती रही.....

हम जिगर के टुकड़े समेटते रहे
वो ना कहकर अरमां लौटाती रही।

रह रह के यूँ  याद उसकी आती रही
ले रकीब का नाम वो सताती रही।

कुछ अर्पण कर  कुछ समेटकर
हमें रात-रात भर वो जगाती रही।

अबके तुमसे मिलेंगे तो दिलो जाँ से
मिलकर बेगानेपन का अहसास दिलाती रही।

प्यार पवित्र किसी दुआ की तरह
गलत कहकर धुंए सा उड़ाती रही।

कहती है हमसे न यूँ मिला करो
जुदाई के आने से पहले रुलाती रही।

फर्क क्या उसे हमारे न होने का
रंगों में भी जो मुखौटे बनाती रही।

 



 



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